Volume : 5, Issue : 7, JUL 2019
समकालीन हिन्दी कविता और समाज (Contemporary Hindi Poetry and Society)
DR. SANJEEV KUMAR
Abstract
'समकालीन' यानि एक ही समय का अथवा समसामयिक और कविता अर्थात् हृदय के भावों की अभिव्यक्ति। 'नई कविता' युग से अनेक काव्यान्दोलन नारे रूप के में आए और समाप्त हो गए, जैसे - अकविता, विद्रोही कविता, समानांतर कविता, नूतन कविता, अस्वीकृत कविता आदि। नाम चाहे जो भी दिया जाए, कविता अपने मूल में तब तक कविता है जब तक वह जीवन और परिवेश को संवेदना के धरातल पर अनुभव करके शिल्पगत सौन्दर्य के साथ अभिव्यक्त करती है। कविता जीवन की व्याख्या है अतः वह जिन्दगी के फलसफे को अपने भीतर समेटे रहती है। समकालीन कविता अपने युग एवं परिवेश से सम्पृक्त है। इस कविता में हम अपने वर्तमान को देख सकते हैं। हमारी आशा-निराशा, आकांक्षा-अपेक्षा, राग-विराग, हर्ष-विषाद सब उसमें समाए हुए हैं। इस कविता का स्वर व्यंग्य और आक्रोश से भरा हुआ है। समकालीन कविता में चित्रित मानव जिन तनावों, विसंगतियों एवं कुण्ठाआें को लिए हुए जी रहा है, वे पूर्णतः यथार्थ हैं। समकालीन कविता उस मोहभंग को दर्शाती है जो स्वतंत्रता के बाद लोगों के हृदय में उत्पन्न हुआ था । नेताआें के वायदे खोखले साबित हुए। सबके घर में रोशनी और खुशहाली का वायदा किया गया था । दुष्यंत कुमार लिखते हैं -
कहां तो तय था चिरागं हरेक घर के लिए।
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ।।
Keywords
समकालीन, हिन्दी कविता, समाज
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References
१। रमेश गौड़ ः प्Çारम्भ, पृष्ठ।१८८ । २। रमेश कुंतल मेघ ः क्योिंक समय एक शब्द है, पृष्ठ। ४६४ । ३। राजकमल चौधरी ः मुक्तिप्Çासंग, पृष्ठ।२१। ४। रघुवीर सहाय ः हंसो हंसो जल्दी हंसो, पृष्ठ।०१ ५। कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंहः लेखन, पृष्ठ।२५ । ६। नन्द चतुर्वेदी ः कविता-८, पृष्ठ १६ ।
परिशिष्ट (मूल ग्रंथ सूची)
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